आरज़ू कामराँ नहीं लगती ज़िंदगी शादमाँ नहीं लगती है हलावत नहीं बयाँ में जब दिल-नशीं दास्ताँ नहीं लगती मैं सजा कर इसे बहुत ख़ुश हूँ फिर भी महफ़िल जवाँ नहीं लगती इश्क़ के बोल यूँ तो दिलकश हैं मो'तबर सी ज़बाँ नहीं लगती गुफ़्तुगू कर के आज जुगनू से रात कुछ राएगाँ नहीं लगती रंग ख़ुश्बू सबा नहीं मुझ में सोच जन्नत-निशाँ नहीं लगती प्यार की वो हसीन सी आहट जो वहाँ थी यहाँ नहीं लगती फूल शबनम का अक्स लगती थी वो हवा अब रवाँ नहीं लगती 'साहनी'-जी हज़ार कोशिश से ये ज़मीं आसमाँ नहीं लगती