अर्श से रुख़ जानिब-ए-दुनिया-ए-दूँ करना पड़ा बंदगी में क्या से क्या ये सर निगूँ करना पड़ा मिन्नत-ए-साहिल भी सर ले ली भँवर में डोलते हाँ ये हीला भी हमें बहर-ए-सुकूँ करना पड़ा सामने उस यार के भी और सर-ए-दरबार भी एक ये दिल था जिसे हर बार ख़ूँ करना पड़ा हम कि थे अहल-ए-सफ़ा ये राज़ किस पर खोलते क़ाफ़िले का साथ आख़िर तर्क क्यूँ करना पड़ा ख़म न हो पाया तो सर हम ने क़लम करवा लिया वूँ न कुछ 'माजिद' हुआ हम से तो यूँ करना पड़ा