'आरज़ू' जाने भी कैसे कोई रुत्बा माँ का रू-ए-जन्नत से हसीं लगता है तलवा माँ का ख़ुद तो भूकी है खिलाती है मगर बच्चों को मैं तो क़ुर्बान गया देख के फ़ाक़ा माँ का भूल बैठा वो जवाँ हो के सभी एहसानात जो कभी ओढ़ के सोता था दुपट्टा माँ का सारी उलझन मिरी पल भर में सुलझ जाती है सामने जब मिरे आ जाता है चेहरा माँ का दिन में तारे नज़र आ जाते हैं उन को अक्सर 'आरज़ू' जिन के सरों पर नहीं साया माँ का