मुद्दआ' कुछ भी हो लेकिन मुद्दआ' रक्खा करो जज़्बा-ए-ता'मीर से भी वास्ता रक्खा करो ज़िंदगी के रास्ते में हैं हज़ारों ठोकरें आबला-पाई सलामत जो सिला रक्खा करो मिल ही जाते हैं ये अक्सर ज़िंदगी की मोड़ पर अजनबी चेहरों से ख़ुद को आश्ना रक्खा करो देखना शोला-बयानी भी अदा बन जाएगी तल्ख़ी-ए-इज़हार में हुस्न-ए-अदा रक्खा करो मोम से भी दोस्ती हो और शो'लों से भी प्यार फिर भी उन के दरमियाँ कुछ फ़ासला रक्खा करो घुप अंधेरा हो तो फिर मिलती नहीं राह-ए-नजात ज़ेहन-ओ-दिल का रौशनी से राब्ता रक्खा करो तुम को जीना है 'असर' इस इंक़िलाबी दौर में अपनी फ़ितरत में ज़रा फ़िक्र-ए-रसा रक्खा करो