असर तो जज़्बा-ए-ज़ौक़-ए-दरूँ में है मगर कम-कम शब-ए-फ़ुर्क़त के मारों को है उम्मीद-ए-सहर कम-कम फ़रेब-ए-हुस्न तेवर ही से ज़ाहिर है ये दीवाने हैं अंदाज़-ए-बयान-ए-हुस्न से वाक़िफ़ मगर कम-कम वही है ज़ौक़ का आलम हज़ारों ना-मुरादी पर मगर ऐसे भी अहल-ए-ज़ौक़ आते हैं नज़र कम-कम मिज़ाज-ए-हुस्न अदा-ए-हुस्न ही से हैं समझ लेते हैं ऐसे बा-हुनर कम-कम हैं ऐसे दीदा-वर कम-कम कहाँ वो लोग जिन को पैकर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा कहिए अगर हैं भी तो कह लीजे ब-अंदाज़-ए-दिगर कम-कम 'ज़ुबैर' अख़बार-ए-आलम पर नज़र हर इक की है लेकिन कोई है बा-ख़बर कम-कम कोई है बे-ख़बर कम-कम