अश्क आँखों से दम-ए-ज़ब्त रवाँ होता है जब कोई दर्द हक़ीक़त की ज़बाँ होता है ख़ून रिसता है तो आती है गुल-ए-सुर्ख़ की याद ज़ख़्म देखें तो बहारों का गुमाँ होता है हम ने अस्लाफ़ के किरदार किए हैं ज़िंदा वर्ना तारीख़ को एहसास कहाँ होता है हर क़दम ग़म की सलीबों से गुज़रना होगा मरहला दर्द का आसान कहाँ होता है इश्क़ एहसास-ए-कम-ओ-बेश का पाबंद नहीं जब हवस हो तो ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ होता है अरसा-ए-दहर में इंसाँ की हक़ीक़त मालूम एक तिनका जो सर-ए-आब-ए-रवाँ होता है सब्ज़ा पामाल गुल अफ़्सुर्दा चमन पज़मुर्दा क्यूँ ब-ईं-शक्ल बहारों का गुमाँ होता है मंज़र-ए-दर्द ने एहसास न रक्खा बाक़ी देख लेते हैं मगर होश कहाँ होता है आप की ज़र्रा-नवाज़ी है जो इस क़ाबिल हूँ वर्ना शाइ'र में कोई वस्फ़ कहाँ होता ग़म जो बख़्शा है मुझे तू ने ग़ज़ल की सूरत ख़ून पी पी के शब-ओ-रोज़ जवाँ होता है फ़स्ल-ए-गुल में दिल-ए-वहशी का चलन मत पूछो ऐसे मौसम में तो ये आफ़त-ए-जाँ होता है कौन 'अंजुम' के मुक़ाबिल है सर-ए-बज़्म-ए-सुख़न मुनफ़रिद आप का अंदाज़-ए-बयाँ होता है