करूँ क्या सख़्त मुश्किल आ पड़ी है मिरी दहलीज़ पर चाहत खड़ी है मक़ाम-ए-ज़ब्त है ऐ दिल सँभलना जुदाई की घड़ी सर पर खड़ी है रसाई कब दिलों तक पा सकी वो मोहब्बत जो किताबों में पड़ी है शिकस्ता हैं मिरे आ'साब यूँ भी अना से जंग इक मुद्दत लड़ी है कई दिन से बरहना मेरे दिल में तअल्लुक़ की कोई मय्यत पड़ी है उसे मिलना भी है क़ैद-ए-मुसलसल जुदाई की भी अपनी हथकड़ी है