अश्क-ए-मज़लूम पे ये सोच के ख़ंदाँ होना वक़्त क़तरों को सिखा देता है तूफ़ाँ होना मैं परेशाँ हूँ ज़रूरी था परेशाँ होना क्यूँकि इक जुर्म है इस दौर में इंसाँ होना वैसे ही आलम-ए-हस्ती पे हैं ग़म के साए और फिर आप की ज़ुल्फ़ों का परेशाँ होना फिर किसी ज़ुल्म की बुनियाद पड़ी है लोगो बे-सबब तो नहीं ज़ालिम का पशेमाँ होना मेरे हालात-ए-परेशाँ को दुआएँ दीजे आ गया आप की ज़ुल्फ़ों को परेशाँ होना चारागर यूँ मुझे तस्कीन दिए जाते हैं जैसे मुमकिन है मिरे दर्द का दरमाँ होना ख़ार हैं लाला-ओ-गुल उस की नज़र में 'रौनक़' जिस ने देखा है गुलिस्ताँ का बयाबाँ होना