दम तोड़ता हूँ ख़ाक पे गोर-ओ-कफ़न से दूर या-रब किसी की मौत न आए वतन से दूर अहल-ए-चमन का शेवा-ए-बेगानगी न पूछ हम तो चमन में रहते हुए हैं चमन से दूर आह-ए-दिल-ए-ग़रीब क़यामत से कम नहीं इक बात कह रहा हूँ किसी हुस्न-ए-ज़न से दूर दिल से है बे-नियाज़ उमीदों की रौशनी जलते हैं ये चराग़ मगर अंजुमन से दूर इस दौर में भी हक़ के परस्तार कम नहीं ये और बात है कि हैं दार-ओ-रसन से दूर आओ क़फ़स में बैठ के रोएँ बहार को तुम भी चमन से दूर हो हम भी चमन से दूर 'रौनक़' जुनून-ए-शौक़ का आलम भी ख़ूब है ख़ुशियों से बे-नियाज़ हूँ रंज-ओ-मेहन से दूर