अश्क पर गुदाज़-दिल हाशिया चढ़ाता है इक ज़रा से क़िस्से को दास्ताँ बनाता है हाँ वो काफ़िर-ए-नेमत कोर-ज़ौक़ है यारो जो ग़म-ए-मोहब्बत को हादिसा बताता है जीते-जी का रिश्ता है रूह-ओ-जिस्म का रिश्ता धूप के तआ'क़ुब में साया मात खाता है जब ज़बान-बंदी हो नज़रें काम करती हैं इक पयाम आता है इक पयाम जाता है पत्थरों के सीने में आइने भी हीरे भी ज़ुल्मतों का ख़ालिक़ ही मेहर-ओ-मह उगाता है क्यूँ जवार-ए-मंज़िल में सुस्त-गाम हैं राही क़ुर्ब का यक़ीं शायद फ़ासला बढ़ाता है ऐ 'उरूज' ये दुनिया क़द्र-ए-दर्द क्या जाने क्यूँ ज़माना-साज़ों को हाल-ए-दिल सुनाता है