बंद हैं दिल के दरीचे रौशनी मादूम है अब जो अपना हश्र होना है हमें मा'लूम है हस्ब-ए-नैरंग-ए-जहाँ दिल शाद या मग़्मूम है आदमी जज़्बात का हाकिम नहीं महकूम है अब तकल्लुफ़ बरतरफ़ ये आप को मा'लूम है क्यूँ मिरा ख़्वाब-ए-वफ़ा ता'बीर से महरूम है हुस्न ख़ुद तड़पा किया है मुझ को तड़पाने के बा'द सोचना पड़ता है वो ज़ालिम है या मज़लूम है ख़्वाब आख़िर ख़्वाब है इस ख़्वाब का क्या ए'तिबार जन्नत-ए-नज़्ज़ारा गोया जन्नत-ए-मौहूम है हाए ये तरफ़ा मआल-ए-आरज़ू-ए-सुब्ह-ए-नौ जिस तरफ़ नज़रें उठाता हूँ फ़ज़ा मस्मूम है मेरे किरदार-ए-वफ़ा की आईना-दारी ब-ख़ैर क्यूँ ज़बान-ए-दोस्त पर अल-शाज़-ओ-कल-मादूम है देखने की चीज़ है ये सेहर-ए-अंदाज़-ए-नज़र उन का हर मुबहम इशारा हामिल-ए-मफ़्हूम है ख़ार भी ना-मुतमइन हैं फूल भी ना-मुतमइन बाग़बाँ के इस निज़ाम-ए-गुलिस्ताँ की धूम है अब उसे माहौल जिस क़ालिब में चाहे ढाल दे फ़ितरतन तो आदमी इक पैकर-ए-मफ़्हूम है जो भरी महफ़िल में नज़रों की हुई है गुफ़्तुगू हुस्न को मा'लूम है या इश्क़ को मा'लूम है कितनी कैफ़-आवर है इन की शिरकत-ए-ग़म भी 'उरूज' मातम-ए-दिल की जगह जश्न-ए-दिल-ए-मरहूम है