अश्कों से तपिश सीने की होती है अयाँ और जब आग बुझाता हूँ तो होता है धुआँ और हैं एक ही गुलशन में मगर फ़र्क़ तो देखो फूलों का जहाँ और है काँटों का जहाँ और शायद ये करिश्मा है मिरे नक़्श-ए-वफ़ा का वो जितना मिटाते हैं उभरता है निशाँ और सर अपना उठा लूँ जो दर-ए-यार से नासेह सज्दा ये मोहब्बत का अदा होगा कहाँ और अब फ़ैज़-ए-बहाराँ की करूँ ख़ाक तमन्ना मैं फ़स्ल-ए-बहाराँ में हूँ पामाल-ए-ख़िज़ाँ और कुछ और बिखर जाएँ जो रुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ें छा जाए उजाले पे अंधेरे का समाँ और दाग़-ए-जिगर-ओ-दिल ही नहीं दीद के क़ाबिल रौशन सर-ए-मिज़्गाँ है सितारों का जहाँ और इक अर्ज़-ए-तमन्ना पे हुआ शोर-ए-क़यामत क्या होगा 'अज़ीज़' आप ने खोली जो ज़बाँ और