बहार में भी शगुफ़्ता कोई गुलाब नहीं शबाब का है ज़माना मगर शबाब नहीं सहर तो आई है पर सुब्ह-ए-इंक़लाब नहीं ये आफ़्ताब का धोका है आफ़्ताब नहीं लहूलुहान चमन है तो दस्त प्यासा है कहाँ कहाँ पे करम आप का जनाब नहीं ख़िज़ाँ का दौर तो गुज़रा ख़ुदा ख़ुदा कर के बहार आई तो मय-ख़ाने में शराब नहीं अजीब है तिरी दरिया-दिली का अफ़्साना कि फ़ैज़-ए-आम है और कोई फ़ैज़याब नहीं अलम-नसीब के चेहरे को कौन पढ़ता है कि ये किताब नशात-आफ़रीं किताब नहीं जुनूँ के साज़ पे कर लेगा रक़्स दीवाना बला से आज अगर नग़्मा-ए-रबाब नहीं किसी का बज़्म में ग़ैरत से दम घुटा जाए मगर ज़मीर-फ़रोशों को कुछ हिजाब नहीं बुझा सके न मज़ालिम के तुंद झोंके भी चराग़-ए-हौसला-ए-शौक़ का जवाब नहीं ख़राब रहता है माहौल क्यों ख़ुदा जाने इस अंजुमन में तो अब कोई भी ख़राब नहीं 'अज़ीज़' ख़ुद को बचाओ नज़र के धोके से धुएँ का रक़्स फ़ज़ा में है ये सहाब नहीं