अश्कों से वो आसमाँ भरा था दिल दर्द से झिलमिला गया था वो ज़ख़्म बहाल था बदन पर पैवंद लिबास में लगा था उस चाँद की रौशनी जुदा थी उस रात का रंग भी नया था ख़ामोश थीं सरसराहटें भी इक लम्स ने शोर जब किया था कोंपल पे धनक चमक रही थी उस शर्म को रंग चूमता था शीशे की रगें चटख़ रही तहें साँसों से ग़ुबार छा रहा था गुल-दान में खिल रही थी हैरत कमरे में सुकूत छा गया था हैरत से बिखर रही थी ख़ुशबू ख़ुशबू का हिजाब उतर चुका था इक लौ पे उतर रही थी शबनम इक फूल चराग़ में जला था साँसें हो रही थीं बे-तवाज़ुन शो'लों पे धमाल हो रहा था नज़दीक कहाँ था इस क़दर वो ख़्वाबों पे मुहीत फ़ासला था मैं ख़्वाब समझ रहा था जिस को दर-अस्ल जुनूँ का इर्तिक़ा था