बदन के साए ने जब रास्ता सियाह किया पलट के मैं ने भी सूरज को इंतिबाह किया फिर एक याद की लौ जगमगाई सीने में फिर इक उमीद ने दिल को पनाह-गाह किया इस एक शौक़-ए-नज़र ने हमें किया ता'मीर फिर उस के बाद इसी ने हमें तबाह किया हवा रुकी तो भड़कते रहे चराग़ों में हवा चली तो उठे ख़ुद को राह राह किया अजीब शाम थी वो शाम जब बिछड़ते वक़्त इस आफ़्ताब ने अफ़्सुर्दा बे-पनाह किया ज़मीन बस यही क़ाबिल थी इस लिए अपनी ग़ज़ल में तुझ को उठाया तो मेहर-ओ-माह किया अगर चले तो मुसलसल चले मुसलसल ही 'नफ़ीस' इश्क़ किया और गाह गाह किया