आशुफ़्तगी फिर आज मना ले गई मुझे इक बू-ए-रह-गुज़ार-ए-बला ले गई मुझे जाना था मैं ने मैं तिरे क़दमों की धूल हूँ दुनिया समझ के फूल उठा ले गई मुझे चारागरों को मेरी हवा तक न मिल सकी चुपके से कोई शाम-ए-बला ले गई मुझे तुझ को पुकारना था न दश्त-ए-तलब में दोस्त दूर और तुझ से तेरी सदा ले गई मुझे अब अंजुमन में बैठा हूँ गुम-सुम कहूँ भी क्या दुज़्दीदा इक उदासी चुरा ले गई मुझे रखता भी कौन प्यासे सवालों की आबरू बस मेरी ख़ामुशी ही निभा ले गई मुझे उस में किसी तलब का 'मुसव्विर' न था सवाल मय-ख़ाने एक लग़्ज़िश-ए-पा ले गई मुझे