असीर-ए-ज़ात हूँ अपने बदन के अंदर मैं रिहाई क़ैद-ए-अनासिर से पाऊँ क्यूँ-कर मैं गुज़र गए कई तूफ़ाँ क़रीब से हो कर खड़ा हुआ सर-ए-साहिल हूँ कब से शश्दर में किसे अज़ीज़ नहीं अपने बाम-ओ-दर लेकिन हुआ हूँ सोच समझ कर ही कुछ तो बे-घर मैं सफ़र में रह गई शर्म-ए-बरहनगी मेरी ग़ुबार-ए-राह की ओढ़े हुए हूँ चादर मैं तराशता मैं ख़ुद अपने नए नए पैकर करम से आप के होता जो दस्त-ए-बुत-गर मैं मिरे वजूद की हद ही नहीं कोई लेकिन ये और बात ब-ज़ाहिर नहीं समुंदर मैं सफ़र हयात का तय हो रहा है ऐ 'राग़िब' हुआ सवार अनासिर के जब से रथ पर मैं