सारे गमले सूख गए हैं कैसा मौसम आया है गुलशन गुलशन वीरानी है फूल हैं और न सब्ज़ा है अहल-ए-ख़िरद कुछ सोच रहे हैं छोड़ो उन का ज़िक्र ही किया दीवाने भी मुहर ब-लब हैं शहर में इक सन्नाटा है रात अँधेरी ख़ौफ़ का आलम जा के कहाँ सर फोड़ेंगे बंद किवाड़ों पर दस्तक तो दीवानों का हिस्सा है अहल-ए-बसीरत सोच से आरी काले धंदे गोरे लोग हम ने बे-कारी के दिनों में जाने क्या क्या सोचा है घर के आँगन में चेरी के फूल खिले तो क्या हासिल क़र्या क़र्या वीरानी है गुलशन गुलशन उजड़ा है अख़बारों में छपवाता हूँ नई नई ग़ज़लें अक्सर आज मिरे दीवाने-पन का सारे शह्र में चर्चा है 'राज़' तुम्हें ये क्या सूझी है जो शेर सुनाने निकले हो ये लाशों का शहर है इस पर इफ़्रीतों का साया है