असीर-ए-बज़्म हूँ ख़ल्वत की जुस्तुजू में हूँ मैं अपने आप से मिलने की आरज़ू में हूँ मिरी सरिश्त में रंग-ए-बहार है लेकिन बहुत दिनों से किसी बाग़-ए-बे-नुमू में हूँ तो मुझ को भूल गया है मगर मिरे मुतरिब मैं दर्द बन के तिरे नग़्मा-ए-गुलू में हूँ ख़िज़ाँ-रसीदा किसी नख़्ल-ए-नीम-जाँ के तले मुझे भी देख उसी शाम-ए-ज़र्द-रू में हूँ भटकता रहता हूँ शाम-ओ-सहर नहीं मा'लूम मैं किसी तलाश में हूँ किस की जुस्तुजू में हूँ वो जिस के तर्ज़-ए-मसीहाई पर है शहर निसार उसी की तेग़ से डूबा हुआ लहू में हूँ मैं एक आतिश-ए-ख़्वाब-आफ़रीदा की सूरत कभी चराग़ की लौ में कभी सुबू में हूँ तू मेरे लफ़्ज़ों से बाहर मुझे तलाश न कर छुपा हुआ मैं कहीं अपनी गुफ़्तुगू में हूँ पुकारता हूँ मदद को कोई नहीं आता सितम की शाम है और नरग़ा-ए-अदू में हूँ