कुछ ख़्वाब कुछ ख़याल में मस्तूर हो गए तुम क्या क़रीब निकले कि सब दूर हो गए आँखों के दर थे बंद तो जीना मुहाल था आँखें खुलीं तो और भी मा'ज़ूर हो गए ऐसे छपे कि सुर्मा-ए-चशम-ए-जहाँ हुए ऐसे खुले कि बर्क़-ए-सर-ए-तूर हो गए जादूगरी के राज़ से ना-आश्ना न थे हम तो तिरे ख़याल से मजबूर हो गए मिट्टी पे आ गई थी ज़रा देर को बहार बस लोग इतनी बात पे मग़रूर हो गए पत्थर तो पूजे जाते हैं इस राह में 'जमील' तुम तो ज़रा सी ठेस लगी चूर हो गए