हम को मा'लूम है बातों की सदाक़त तेरी लोग क्या क्या नहीं करते हैं शिकायत तेरी मल्का-ए-हुस्न नहीं फिर भी तू ऐ जान-ए-वफ़ा अच्छी लगती है बहुत ही मुझे सूरत तेरी कोई मुश्किल भी हो ख़ातिर में न लाते थे कभी हौसला कितना बढ़ाती थी रिफ़ाक़त तेरी तू ही बतला कि भला तुझ को भुलाएँ क्यूँ कर सामने आँखों के आ जाती है सूरत तेरी क्या कहें हम कि गुज़र जाती है दिल पर क्या क्या याद आती है जो रह रह के इनायत तेरी लोग क्या सादा हैं उम्मीद-ए-वफ़ा रखते हैं जैसे मा'लूम नहीं उन को हक़ीक़त तेरी अब कहाँ रहता है क्या करता है 'नादिर' मेरे मुद्दतों बा'द नज़र आती है सूरत तेरी