दिल से मंज़ूर तिरी हम ने क़यादत नहीं की ये अलग बात अभी खुल के बग़ावत नहीं की हम सज़ा-वार जो ठहरे तो सबब है इतना हुक्म-ए-हाकिम पे कभी हम ने इताअ'त नहीं की हम ने मालिक तुझे माना है तो सच्चा माना इस लिए तेरी कभी झूटी इबादत नहीं की दोस्ती में भी फ़क़त एक चलन रक्खा है दिल ने इंकार किया है तो रिफ़ाक़त नहीं की तू ने ख़ुद छोड़ा मोहब्बत का सफ़र याद तो कर मैं ने तो तुझ से अलग हो के मसाफ़त नहीं की झूम उट्ठेगा अगर उस को सुनाऊँ जा कर ये ग़ज़ल मैं ने अभी नज़्र-ए-समाअ'त नहीं की उस को भी अपने रवय्ये पे कोई उज़्र न था हम भी थे अपनी अना में सो रिआ'यत नहीं की ये तो फिर तुझ से मोहब्बत का था क़िस्सा मिरी जाँ मेरे किस फ़े'ल पे दुनिया ने मलामत नहीं की तू ने चर्चे किए हर जा मिरी रुस्वाई के मैं ने ख़ुद से भी कभी तेरी शिकायत नहीं की दोस्तों को भी रही वक़्त की क़िल्लत 'अख़्तर' हाल-ए-दिल हम ने सुनाने की भी आदत नहीं की