और भी कुछ हो इनायत के लिए ज़िंदगी कम है मोहब्बत के लिए ठीक है हुस्न-परस्ती भी मगर कोई चेहरा नहीं नफ़रत के लिए रात-दिन काम पड़े रहते हैं वक़्त मिलता नहीं फ़ुर्सत के लिए ज़ुल्म के शहर में इंसाफ़ कहाँ मुंतज़िर हम हैं क़यामत के लिए वो तकल्लुफ़ ही से मिलता है हमें दिल मचलता है शरारत के लिए लोग करते हैं वफ़ा का शिकवा हम तरसते हैं मुरव्वत के लिए किस तरह बात चलेगी आगे हम-सुख़न चुप है शिकायत के लिए कौन रिश्तों को निभाता है 'अम्र' हर तअ'ल्लुक़ है ज़रूरत के लिए