और कोई दम की मेहमाँ है गुज़र जाएगी रात ढलते ढलते आप-अपनी मौत मर जाएगी रात ज़िंदगी में और भी कुछ ज़हर भर जाएगी रात अब अगर ठहरी रग-ओ-पै में उतर जाएगी रात जो भी हैं पर्वर्दा-ए-शब जो भी हैं ज़ुल्मत परस्त वो तो जाएँगे उसी जानिब जिधर जाएगी रात अहल-ए-तूफ़ाँ बे-हिसी का गर यही आलम रहा मौज-ए-ख़ूँ बन कर हर इक सर से गुज़र जाएगी रात है उफ़ुक़ से एक संग-ए-आफ़्ताब आने की देर टूट कर मानिंद-ए-आईना बिखर जाएगी रात हम तो जाने कब से हैं आवारा-ए-ज़ुल्मत मगर तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात रात का अंजाम भी मालूम है मुझ को 'सुरूर' लाख अपनी हद से गुज़रे ता-सहर जाएगी रात