ऐ जुनूँ कुछ तो खुले आख़िर मैं किस मंज़िल में हूँ हूँ जवार-ए-यार मैं या कूचा-ए-क़ातिल में हूँ पा-ब-जौलाँ अपने शानों पर लिए अपनी सलीब मैं सफ़ीर-ए-हक़ हूँ लेकिन नर्ग़ा-ए-बातिल में हूँ जश्न-ए-फ़र्दा के तसव्वुर से लहू गर्दिश में है हाल में हूँ और ज़िंदा अपने मुस्तक़बिल में हूँ दम-ब-ख़ुद हूँ अब सर-ए-मक़्तल ये मंज़र देख कर मैं कि ख़ुद मक़्तूल हूँ लेकिन सफ़-ए-क़ातिल में हूँ इक ज़माना हो गया बिछड़े हुए जिस से 'सुरूर' आज उसी के सामने हूँ और भरी महफ़िल में हूँ