और मय-ख़ाना-नशीं चोर बनाए न गए हम धरे जाते हैं नाहक़ कहीं आए न गए शोख़ियाँ तेरी उठाएँगी मुझे बज़्म से क्या उन से तो शर्म के पर्दे भी उठाए न गए क़ैद नग़्मे की हुई क़ैद-ए-क़फ़स पर तुर्रा हम से सय्याद को नाले भी सुनाए न गए पर्दा डाला तिरी रहमत ने मिरे इस्याँ पर उन फ़रिश्तों से मिरे ऐब छुपाए न गए कौन सा लुत्फ़ न फ़िरदौस में पाया लेकिन फिर भी दुनिया के मिरे दिल से भुलाए न गए जब चले सू-ए-लहद मुड़ के न देखा घर को ऐसे रूठे कि किसी से भी मनाए न गए ये समझ कर कि गुनहगार हैं किस मालिक के न गए हश्र में हम आँख झुकाए न गए ग़ैर के जलने से कुछ आँच न आती तुम पर क्यूँ अलग बैठे हुए आग लगाए न गए न रहा हश्र में नज़्ज़ारे से महरूम कोई क़ब्र से एक हमें आज उठाए न गए किस ने देखा हमें कूचे में हसीनों के 'रियाज़' मुफ़्त बदनाम हुए हम कहीं आए न गए