धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई पुकारता है मुझे रोज़-ओ-शब कोई न कोई शब-ए-अलम तिरे सादा दिलों पे क्या गुज़री सहर हुई तो सुनाएगा सब कोई न कोई ज़बान बंद है आँखों के बंद रहने तक खुलेगी आँख तो खोलेगा लब कोई न कोई हवा-ए-साज़-ए-अलम लाख एहतियात करे लरज़ ही उठता है तार-ए-तरब कोई न कोई घने बनों में भी रस्ता निकल ही आता है बना ही देती है क़ुदरत सबब कोई न कोई