और मुझ सा जान देने का तमन्नाई नहीं

और मुझ सा जान देने का तमन्नाई नहीं
उस का शैदाई हूँ जिस का कोई शैदाई नहीं

साफ़ हैं हम गो तुझे मैल-ए-ख़ुद-आराई नहीं
दिल वही आईना है पर तू तमाशाई नहीं

क़ाइल-ए-वहदत हूँ शिरकत का तमन्नाई नहीं
तू जो तन्हा है तो मुझ को फ़िक्र-ए-तनहाई नहीं

नासेहो क्यूँ सब्र करने के लिए करते हो तंग
इस क़दर दिल तंग है जा-ए-शकेबाई नहीं

ढूँढने पर मैं कमर बाँधूँ तो पाऊँ क़स्र-ए-यार
बे-महल है ला-मकाँ कहना वो हरजाई नहीं

सच है हक़ ना-हक़ नहीं मिलता किसी को मर्तबा
दार पर मंसूर को औज-ए-मसीहाई नहीं

या करो अपना किसी को या किसी के हो रहो
चार दिन की ज़िंदगी में लुत्फ़-ए-तन्हाई नहीं

ज़ार हूँ ताक़त से मिल जाने को ताक़त चाहिए
ना-तवानी से जुदाई की तवानाई नहीं

दश्त-ए-वहशत में नहीं मिलता है साये का पता
मैं हूँ सौदाई मिरा हम-ज़ाद सौदाई नहीं

आतशी शीशे की ऐनक हो हमारी आँख में
हम तुम्हारी गर्मियाँ देखें ये बीनाई नहीं

मिस्र के बाज़ार में क्या बढ़ गई यूसुफ़ की क़द्र
हुस्न को बे-पर्दगी में ऐब-ए-रुस्वाई नहीं

बे-मय-ओ-मय-ख़ाना-ओ-साक़ी जो आई मुझ को मौत
हल्क़ा-ए-मातम है दौर-ए-चर्ख़-ए-मीनाई नहीं

हो गया ख़ामोश जो शहर-ए-ख़मोशाँ का हुआ
है दहान-ए-गोर मौजूद और गोयाई नहीं

दोनों नशाओं से हैं बाहर मस्त-ए-सहबा-ए-अलस्त
अपने मय-ख़ाने में दौर-ए-चर्ख़-ए-मीनाई नहीं

पाएँ क्या दीवाना-ए-मिज़्गाँ बुत-ए-तरसा में लुत्फ़
सोज़न-ए-ईसा में नोक-ए-ख़ाक-ए-सहराई नहीं

मेरे दिल की तुझ को बेजा है शिकायत ग़ैर से
अपने घर का हाल कहना तर्ज़-ए-दानाई नहीं

नश्शे में ज़िंदा हैं है ईसा-नफ़स अपना ख़ुमार
जान आ'ज़ा में चली आती है अंगड़ाई नहीं

हो गए टेढ़े अगर हम ने जगाया नींद से
आप दर-पर्दा अकड़ते हैं ये अंगड़ाई नहीं

मय-कदे पर सक़्फ़-ए-अब्र-ए-रहमत-ए-हक़ चाहिए
एहतियाज-ए-साएबान-ए-चर्ख़-ए-मीनाई नहीं

बे-ख़तर हैं सुस्ती-ए-अंदाम से नाज़ुक-मिज़ाज
जुस्तुजू-ए-बादा में शीशों की अंगड़ाई नहीं

सर को टकरा कर मिटाया अपनी क़िस्मत का लिखा
दैर में का'बे में अब फिक्र-ए-जबी-साई नहीं

आप से यूसुफ़ हज़ारों हम से आशिक़ सैकड़ों
हुस्न का तोड़ा नहीं क़हत-ए-तमाशाई नहीं

पीर-ए-गर्दूं से ज़रा अंजुम उचक कर छीन लें
हिम्मतें आली हैं फ़िक्र-ए-चर्ख़-ए-बालाई नहीं

है मिरा दश्त-ए-जुनूँ सात आसमानों से दो-चंद
रुब-ए-मस्कूँ वादी-ए-वहशत की चौथाई नहीं

दुख़्तर-ए-रज़ मिस्ल-ए-अफ़्लातूँ है जब तक ख़ुम में है
नश्शे में अपने से बाहर हों ये दानाई नहीं

लखनऊ की आरज़ू में जान देता है 'मुनीर'
सल्तनत का भी ज़माने में तमन्नाई नहीं


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