औराक़ ज़िंदगी के उलटने लगे तो हैं आसार-ए-सुब्ह-ओ-शाम बदलने लगे तो हैं क्या ग़म जो सेहन-ए-बाग़ में आई नहीं बहार शाख़ों पे चंद फूल हुमकने लगे तो हैं काली रुतों में सहमे हुए थे तमाम लोग अब सीना तान कर वो निकलने लगे तो हैं अह्द-ए-सितम-गराँ में भी ये सादा-लौह लोग झूटी तसल्लियों से बहलने लगे तो हैं अब के हवा ने कान में मौजों से क्या कहा पानी पे कुछ हबाब उभरने लगे तो हैं 'पैकर' वो हाथ जो थे सिरहाने धरे हुए उन हाथों में भी तेशे चमकने लगे तो हैं