औरों में ख़ुद को जान-ब-लब ढूँडते रहे ग़ैरों में अपना नाम-ओ-नसब ढूँडते रहे सूरज तो रौशनी के सहीफ़ों में क़ैद था हम सब उसे पस-ए-रुख़-ए-शब ढूँडते रहे जो था हमारे साथ हर इक रंग में उसे पत्थर की इक हवेली में सब ढूँडते रहे धोका था वो नज़र का मगर इस का क्या कहें दुनिया की भीड़ में उसे जब ढूँडते रहे वो था तिरे मिरे रग-ए-जाँ के हिसार में दैर-ओ-हरम में ही उसे जब ढूँडते रहे मिलता नहीं सुकूँ तिरी बज़्म-ए-हयात में जीते जी हम तो मौत के ढब ढूँडते रहे