आवारा सा गलियों में जो मैं घूम रहा हूँ ज़ाहिर है तिरी दीद से महरूम रहा हूँ फिर आँखें बिछाए हुए हूँ राह में उस की फिर हर किसी रह-रव के क़दम चूम रहा हूँ ये है मिरी बेदारी-ए-क़ल्बी की ही इक वज़्अ हर-चंद तिरी बज़्म में मैं झूम रहा हूँ ग़द्दारी-ए-उल्फ़त तो नहीं है मिरा शेवा इस जुर्म के ही ख़्याल से मासूम रहा हूँ ख़ुश-क़िस्मती-ए-अहल-ए-जुनूँ है मिरा हिस्सा आसाइश-ए-दुनियावी से महरूम रहा हूँ मैं बारगह-ए-हुस्न से मायूस न आता ग़म है वले तक़दीर में मग़्मूम रहा हूँ हूँ क्या कि जो वो क़द्र भी करते मिरी 'रहबर' इक हर्फ़ हूँ और हर्फ़ भी मौहूम रहा हूँ