अज़ान-ए-फ़ज्र के आहंग में महव-ए-सुख़न है कोई मुझ से ख़ुदा के रंग में महव-ए-सुख़न है सवाद-ए-शहर में उतरी हुई है शाम-ए-गिर्या हवा तो लहजा-ए-गुल-रंग में महव-ए-सुख़न है मैं लब-बस्ता खड़ा हूँ बे-समाअत तो नहीं हूँ समय मुझ से ज़बान-ए-संग में महव-ए-सुख़न है ग़ज़ल से मैं नई फ़रहंग में महव-ए-सुख़न हूँ ग़ज़ल मुझ से नई फ़रहंग में महव-ए-सुख़न है मिरे अंदर पयम्बर अम्न का रहता है 'शौकत' वही दुनिया के शोर-ए-जंग में महव-ए-सुख़न है