बाम पर आओ कभी माह-ए-दरख़्शाँ की तरह छुप के क्या जलना चराग़-ए-तह-ए-दामाँ की तरह उम्र भर वो दर-ओ-दीवार के पाबंद रहे घर से निकले ही नहीं हैं मिरे अरमाँ की तरह अब उसे देखूँ तो पहचान भी शायद न सकूँ दिल मिरा टूट गया यार के पैमाँ की तरह दश्त की राह तो ली आलम-ए-वहशत में मगर दश्त भी निकला मिरे ख़ाना-ए-वीराँ की तरह क़ैस को देखा था मैं ने सर-ए-सहरा इक दिन सर से पा तक था फ़क़त दीदा-ए-हैराँ की तरह नशा-ए-मय हो कि हुस्न-ए-रुख़-ए-जानाँ 'आरिफ़' सर चढ़ाना न किसी को कभी एहसाँ की तरह