बारिशों में ग़ुस्ल करते सब्ज़ पेड़ धूप में बनते सँवरते सब्ज़ पेड़ किस क़दर तश्हीर-ए-ग़म से दूर था चुपके चुपके आह भरते सब्ज़ पेड़ दूर तक रोती हुई ख़ामोशियाँ रात के मंज़र से डरते सब्ज़ पेड़ दश्त में वो राह-रौ का ख़्वाब थे घर में कैसे पाँव धरते सब्ज़ पेड़ दोस्तों की सल्तनत में दूर तक दुश्मनों के ढोर चरते सब्ज़ पेड़ कर गए बे-मेहर मौसम के सुपुर्द रफ़्ता रफ़्ता आज मरते सब्ज़ पेड़