बात सूरज की कोई आज बनी है कि नहीं वो जो इक रात मुसलसल थी कटी है कि नहीं तेरे हाथों में तो आईना वही है कि जो था सोचता हूँ मिरा चेहरा भी वही है कि नहीं मुझ को टकरा के ब-हर-हाल बिखरना था मगर वो जो दीवार सी हाइल थी गिरी है कि नहीं उस का चेहरा है कि महताब वो आँखें हैं कि झील बात उस बात से आगे भी चली है कि नहीं अपने पहलू में हुमकते हुए साए न सजा क्या ख़बर उन से ये मिलने की घड़ी है कि नहीं हब्स चेहरों पे तो सदियों से मुसल्लत है मगर कोई आँधी भी किसी दिल में उठी है कि नहीं पूछता फिरता हूँ मैं भागती किरनों से 'रशीद' उस भरे शहर में अपना भी कोई है कि नहीं