सब मुझे आरज़ी सा लगता है तू मगर ज़िंदगी सा लगता है आइना है मगर न जाने क्यूँ आदमी आदमी सा लगता है ख़ुद को कितना भुला दिया मैं ने तू भी अब अजनबी सा लगता है इश्क़ में ज़िंदगी बसर करना अक़्ल को ख़ुद-कुशी सा लगता है जो तिरे हिज्र में मिला 'मोमिन' बस वही ग़म ख़ुशी सा लगता है