बच के वो निकलते हैं जिन से रू-शनासी है ज़िंदगी हमारी तो अब अजल-नुमा सी है जज़्ब हो गई दिल की बे-कली फ़ज़ाओं में इस तरफ़ है सन्नाटा उस तरफ़ उदासी है दिलकशी ग़ज़ब की है हुस्न-ए-सादा-कारी में किस के दस्त-ए-रंगीं ने फूल की क़बा सी है ख़ुश्की-ए-लब-ए-साहिल कह रही है प्यासों से क्या बिसात-ए-दरिया ख़ुद उस की रूह प्यासी है इस क़दर पड़ा पानी खेत जल गया सारा अब्र की तबीअ'त भी बर्क़-ए-शो'ला-ज़ा सी है रूह-ए-ख़ुद-शनासी है आदमी की ख़ुद्दारी ख़ुद-शनासी-ए-इंसाँ अस्ल-ए-हक़-शनासी है