बादा-ए-गुल को सब अंदोह-रुबा कहते हैं अश्क-ए-गुल रंग में ढल जाए तो क्या कहते हैं फ़ुर्सत-ए-बज़्म भी मालूम कि अरबाब-ए-नज़र शोला-ए-शम्अ को हम दोश-ए-सबा कहते हैं ये मुसलसल तिरा पैमाँ तिरी पैमाँ-शिकनी हम इसे हासिल-ए-पैमान-ए-वफ़ा कहते हैं क़स्र-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ ही सही मय-ख़ाना दर-ए-मय-ख़ाना की ज़ंजीर को क्या कहते हैं ये रह-ए-ग़म के ख़म-ओ-पेच अजब हैं जिन को ख़ुश-नज़र साया-ए-गेसू-ए-रसा कहते हैं इश्क़ ख़ुद अपनी जगह मज़हर-ए-अनवार-ए-ख़ुदा अक़्ल इस सोच में गुम किस को ख़ुदा कहते हैं कोई किस दिल से भला उन का बुरा चाहेगा जो भले लोग बुरों को भी भला कहते हैं दिल-नशीं तेरे सिवा कोई नहीं कोई नहीं कौन हैं वो जो तुझे दिल से जुदा कहते हैं यही दीवाना जो फूलों से भी कतराता है क्या इसी को 'रविश'-ए-आबला-पा कहते हैं