जब भी काग़ज़ पे तिरी आँख का लिक्खा काजल अश्क बन कर मिरे अल्फ़ाज़ से टपका काजल अपनी ख़ामोश तमन्नाओं की खिड़की खोलो तुम भी महसूस करो अपना महकता काजल प्यार के दीप जलाती है हवाएँ जैसे यूँही पलकों पे चमकता है सुनहरा काजल जब सियाही न मयस्सर हो क़लम में जानाँ मेरे अशआर को देता है उजाला काजल उस की आँखों से टपकते हैं उजाले घर में शब के माथे पे नज़र आए चमकता काजल रात घिर जाती है 'अफ़रोज़' अँधेरों में जब अपनी आँखों में लगाती है सहर का काजल