बादल इस बार जो उस शहर पे छाए हुए हैं सब मिरे दीदा-ए-नमनाक के लाए हुए हैं रास्ते में नज़र आते हैं न पहुँचे हैं कहीं हम किसी बीच के मंज़र के लुभाए हुए हैं बदन-ए-यार ये सब रंग तिरे अपने हैं या किसी दस्त-ए-मोहब्बत के लगाए हुए हैं कितने समझौते हवाओं से किए बैठे हैं जो सर-ए-राह चराग़ अपने जलाए हुए हैं