बादलों के बीच था मैं बे-सर-ओ-सामाँ न था तिश्नगी का ज़हर पी लेना कोई आसाँ न था क्या क़यामत-ख़ेज़ था दरिया में मौजों का हुजूम साहिलों तक आते आते फिर कहीं तूफ़ाँ न था जाने कितनी दूर उस की लहर मुझ को ले गई मैं समझता था कि वो दरिया-ए-बे-पायाँ न था हर तरफ़ पतझड़ की आवाज़ों की चादर तन गई दश्त में मेरी सदा का जिस्म भी उर्यां न था इस के रंग-ओ-सौत के जुगनू थे दामन में 'अलीम' खो के सब कुछ आने वाला भी तही-दामाँ न था