बदन के दश्त तक इक बार मुझ को रसाई दीजिए सरकार मुझ को चला आऊँगा दौड़ा भागता मैं पुकारो तो सही इक बार मुझ को किसी दिन ले न बैठे जान जानाँ तिरे इंकार की तकरार मुझ को तुम्हारे बिन भला लगता नहीं है कोई मौसम कोई तेहवार मुझ को कोई ज़ंजीर पैरों में पड़ी है बुलाता है बहुत घर-बार मुझ को ये तेरे जन्नती बंदे ख़ुदाया समझते हैं ज़लील-ओ-ख़्वार मुझ को