बदन को अपने मोहब्बत की सान पर रख दे ये नम से लब मिरी तिश्ना ज़बान पर रख दे अगर गुरेज़ है तुझ को हिसाब-ए-लग़्ज़िश से हर एक तोहमत-ए-ग़म आसमान पर रख दे इसी ग़ुबार के नीचे ज़मीन हो शायद असास अपने यक़ीं की गुमान पर रख दे सुपुर्दगी तिरे ग़म को सुबुक बना देगी ये बोझ बनता हुआ सर क़ुरान पर रख दे हो ख़ून गर्म तो कुछ सोचता नहीं इंसाँ ज़रा ये धूप 'ज़फ़र' साएबान पर रख दे