धुंदलाहटों में गुम थे जो मंज़र चमक गए मेरी नज़र से कितने ही पर्दे सरक गए इस साया-ए-बदन में ठहर जाएँ अब तो हम बे-नाम मंज़िलों के तजस्सुस में थक गए ये किस के ग़म की आँच से पिघला है संग-ए-दिल आँखों से मेरी आज फिर आँसू टपक गए ख़ुद को तलाश कर कि हैं तुझ में हक़ीक़तें उन की तरफ़ न देख जो सू-ए-फ़लक गए काँटों की फ़स्ल है मिरी राहों का पैरहन वो रास्ते किधर हैं जो फूलों से ढक गए उजड़े बदन सँवर न सके यूँ तो दोस्तो बाग़ों में रुत जवान हुई फल भी पक गए