बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है चमक रहा है उफ़ुक़ तक ग़ुबार-ए-तीरा-शबी कोई चराग़ सफ़र पर रवाना हो गया है हमें तो ख़ैर बिखरना ही था कभी न कभी हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है ग़रज़ कि पूछते क्या हो मआल-ए-सोख़्तगाँ तमाम जलना जलाना फ़साना हो गया है फ़ज़ा-ए-शौक़ में उस की बिसात ही क्या थी परिंद अपने परों का निशाना हो गया है किसी ने देखे हैं पतझड़ में फूल खिलते हुए दिल अपनी ख़ुश-नज़री में दिवाना हो गया है