लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी कुछ सोच के ख़ामोश हैं यारान-ए-क़फ़स भी दस्तूर-ए-मोहब्बत ही नहीं जाँ से गुज़रना कर लेते हैं ये काम कभी अहल-ए-हवस भी नाज़ुक हैं मराहिल सफ़र-ए-मंज़िल-ए-ग़म के इस राह में खो जाती है आवाज़-ए-जरस भी आज़ाद भी हो जाएँगे आख़िर तिरे क़ैदी इक रोज़ बिखर जाएगी ज़ंजीर-ए-नफ़स भी अंगुश्त-नुमा शैख़-ओ-बरहमन के चलन पर मस्जिद के मनारे भी हैं मंदिर के कलस भी दीवाना अभी तक है उसी दुश्मन-ए-जाँ का आता है दिल-ए-ज़ार पे ग़ुस्सा भी तरस भी कुछ आप का ग़म कुछ ग़म-ए-जाँ कुछ ग़म-ए-दुनिया दामन में मिरे फूल भी हैं ख़ार भी ख़स भी चुप रह के भी मुमकिन न रहा दर्द छुपाना इक शोला-ए-आवाज़ है अब मौज-ए-नफ़स भी