बदन पर ज़ख़्म थे और उस्तुख़्वाँ में दिन नहीं था बहुत तारे थे अपने आसमाँ में दिन नहीं था मिरी ख़्वाहिश के जितना कब हुआ मुझ में सराबाँ कि बहर-ए-दश्त के कौन-ओ-मकाँ में दिन नहीं था अंधेरे में थे अपने क़हक़हे भी सिसकियाँ भी हमारे वस्ल के सूद-ओ-ज़ियाँ में दिन नहीं था बसंती धूप थी दरकार हरियाली की ख़ातिर ख़िज़ानी-रुत थी हिस्से गुलिस्ताँ में दिन नहीं था हक़ीक़त ख़्वाब में ढलने को थी मौजूदगाँ में समय की आँख के आइंदगाँ में दिन नहीं था हमारे ग्रहन को सूरज लगाना कब था मुमकिन बहुत ढूँडा मगर अस्र-ए-रवाँ में दिन नहीं था निकलना था घरों से रात में तोहमत बराबर और 'असवद' इस हवस-परवर जहाँ में दिन नहीं था