बदन पे ख़र्का-ए-तहज़ीब फटने वाला है जिसे बचा के रखा है बहुत सँभाला है तुम्हें दिखाऊँ मैं शहर-ए-जदीद का नक़्शा ये डेढ़ ईंट की मस्जिद है ये शिवाला है तमाम रैकों में रक्खी हुई किताबों में तुम्हें ख़बर नहीं फ़िक्र-ओ-नज़र का जाला है मुहीब अँधेरे में रौशन ख़याल लोगों पर न जाने अगले ही पल क्या गुज़रने वाला है जहाँ भी उभरी सदा-ए-ज़मीर-ए-इंसानी जदीदियत के नक़ीबों ने मार डाला है फ़ज़ा में उड़ते हुए और लड़खड़ाते हुए परिंद-ए-ख़स्ता का इक आख़िरी सँभाला है