बड़े सब्र-ओ-तहम्मुल से ब-सद पास-ए-अदब काटे जुदाई इक क़यामत थी मगर ये रोज़-ओ-शब काटे क़यामत है कि उस ने एक जुर्म-ए-बे-गुनाही का मेरे दस्त-ए-तलब तोड़े मिरे पा-ए-तलब काटे दिल-ए-दर्द-आश्ना मिलता तो शायद तुम समझ सकते कि तुम से दूर रह कर हम ने कैसे रोज़-ओ-शब काटे असीरान-ए-क़फ़स सय्याद के मम्नून एहसाँ हैं कभी मिंक़ार सी डाली कभी पर बे-सबब काटे उन्हें एहसास ही होता तो फिर हम को गिला क्या था कि हम ने बार-हा घबरा के क्यूँ अपने ही लब काटे तमन्ना है कि उम्र-ए-'शौक़' गुज़रे तेरे क़दमों में तिरी ज़ुल्फ़ों के साए में ये अपने रोज़-ओ-शब काटे