बढ़ गया कुछ और दिल का इज़्तिराब क्या सितम है ऐ निगाह-ए-बारयाब बन गई बुझते तबस्सुम का शरार वो दम-ए-रुख़्सत तिरी चश्म-ए-पुर-आब ऐ ख़ुशा वो दिल कि जिस की हर ख़लिश है मुजस्सम कुछ सुकूँ कुछ इज़्तिराब रात की नींदें हुईं जिन से हराम देखता हूँ उन हसीं रातों के ख़्वाब बे-पिए रहता था जब हर दम सुरूर हाए वो सरमस्ती-ए-अहद-ए-शबाब नश्शा-ए-दिल से लहकता था चमन आसमानों से बरसती थी शराब मौज-ए-नग़्मा बन गई थी ज़िंदगी बज रहे थे दिल में ताऊस-ओ-रुबाब माहताब-ए-शौक़ हमराह-ए-सफ़र आफ़्ताब-ए-कामरानी हम-रिकाब वो निगाहों में क़यामत का सुकूँ वो धड़कते दिल में हश्र-ए-इज़्तिराब मुद्दतें गुज़रीं मगर अब तक 'जमाल' याद है वो जागती आँखों का ख़्वाब